सत्य कहूं तो... ओम स्वामी Part 1

 


   


               सत्य कहूं तो...     ---‐-----‐- ओम स्वामी


अध्याय एक -------- पहला कदम


 मैंने अपने लॉज का हिसाब चुकता किया और बाहर भीड़-भरी सड़क पर निकल आया। एक साइकिल रिक्शा देखकर मैंने उसे पास आने का संकेत किया। 'कहां जाना है?' रिक्शेवाले ने पूछा।

'घाट कौन सा घाट घाट तो कई हैं।'

मैं इस प्रश्न के लिए प्रस्तुत नहीं था। भला मैं यह कैसे जान सकता था कि वाराणसी में कई घाट हैं?

 'बस, किसी भी घाट पर ले चलो।'

बाबूजी, मैं आपको इस तरह किसी भी घाट पर नहीं ले जा सकता। वरना, आप घाट पर पहुंच कर कहेंगे कि मुझे यहां नहीं आना था।'

'आप, किसी एक घाट का नाम लें।'

दशाश्वमेध घाट।'

'ठीक। मुझे वहीं ले चलो।'


मैंने 1995 के बाद से रिक्शे की सवारी नहीं की थी। पंद्रह वर्षों पूर्व, उस समय मैं एक ऐसा किशोर था, जो सांसारिकता की ओर आकृष्ट और उन्मुख था। अब, तीस वर्ष की आयु में, मैं ठीक विपरीत दिशा में जा रहा था। सवारी नहीं बदली थी, परंतु दिशा बदल चुकी थी; शारीरिक रूप से व्यक्ति नहीं बदला था, परंतु प्राथमिकताएं बदल चुकी थीं। , ,


मैंने यही समझा कि मैं रिक्शे में एक शांत नदी तट की ओर जा रहा हूं, परंतु यह मेरा भ्रम था। घाट तो भीड़ से ठसाठस भरा था मानो किसी उत्तेजित मन में विचारों का ताँता बँधा हो; अथवा किसी मृत कीट पर चीटियों ने डेरा डाल रखा हो।


भारत मेरे लिए कोई नया तो नहीं था; मैंने अपने जीवन के प्रथम अठारह वर्ष इसी देश में बिताए थे। किन्तु अपनी अज्ञानता में मैंने वाराणसी में किसी दूसरे ही भारत की कल्पना कर ली। मेरे मन में एक पुरानी तस्वीर कैद थी, एक ऐसी तस्वीर, जो मैंने देखी तो न थी, मगर मध्ययुगीन पुस्तकें पढ़ते हुए उसकी कल्पना अवश्य कर ली थी: गंगा तट पर बसी काशी, एक प्राचीन नगरी, जो विद्वानों, संतों, तांत्रिकों, योगियों तथा दूसरे आध्यात्मिक लोगों से भरी है।


मैं कुछ देर यों ही निरुद्देश्य घूमता रहा। बहुत पहले मैंने तैलंग स्वामी के विषय में सुना था - एक पहुंचे हुए महात्मा, जो सौ साल से भी अधिक समय से पूर्व काशी में रहते थे। ऐसा कहा जाता कि उनके समाधिस्थल पर एक मठ बना हुआ है। मैंने गंगा तट पर एक शांत मठ की कल्पना कर रखी थी, जहां पुराने वटवृक्षों की सघन छाया में बैठे सच्चे साधक एक श्रद्धेय गुरु के मार्गदर्शन में साधनालीन होंगे। मैंने मठ के विषय में पूछताछ की, किंतु किसी को भी इस मठ का पता-ठिकाना मालूम नहीं था।


मणिकर्णिका घाट इस शहर का ऐसा अकेला दूसरा स्थान था, जिसके बारे में मैंने पहले से सुन रखा था। मैंने सुना था कि वहां एक श्मशान है, जहां मृत शरीरों का दाहसंस्कार चौबीसों घंटे चलता ही रहता है। मुझे आशा थी कि वहां मेरी भेंट किसी तांत्रिक से होगी जो जलती चिताओं के समीप बैठे किन्हीं गोपनीय क्रियाओं में लीन होंगे। मैं वापिस सड़क तक आया और एक दूसरे रिक्शे को रोका। दोपहर हो चली थी और गरमी मुझे परेशान करने लगी थी। मैंने स्वयं को यह दिलासा देना चाहा कि अभी तो यह केवल मध्य मार्च है, किंतु इस बौद्धिक दिलासे ने भी गरमी से राहत नहीं दी।


'मणिकर्णिका घाट चलोगे?'


'हां, बाबूजी, मगर मैं वहां आगे तक नहीं जा सकता। मैं आपको उसकी निकटतम जगह तक पहुंचा दूंगा।' 'कितने रुपए?' 'बीस।'


मैं कूद कर रिक्शे पर जा बैठा, जो व्यस्त सड़क पर अपनी धीमी मगर सतत चाल से आगे बढ़ता जा रहा था। कई बार उसे भीड़ से बाहर निकालने के लिए रिक्शेवाले को रिक्शे से उतरना पड़ता। सूरज आग उगल रहा था और सड़क से जलते कोयले की तरह गरमी निकल रही थी, किंतु मैंने पाया कि रिक्शेवाले के पैरों में चप्पल नही थीं।


'आप चप्पलें क्यों नहीं पहनते?'


बाबूजी, मैंने जिस दिन उन्हें खरीदा, उसी दिन वे मंदिर के बाहर से चोरी चली गईं।' 'मैं इस इलाके को नहीं जानता। जूते-चप्पलों की किसी दुकान के सामने रुकना। मैं आपको चप्पलें खरीद कर देना चाहता हूं।'


'मैं बगैर चप्पलों के काम चला लूंगा, बाबूजी।'


'आपका नाम क्या है?' ।


'महेश कुमार।


'चिंता न करें, महेश। मैं आपको आपका भाड़ा भी दूंगा।' कुछ ही देर बाद मुझे जूतों की एक छोटी दुकान दिखी। मगर महेश रुकने को तैयार नहीं



थे। मुझे उन्हें रुकने का एक आदेश सा देना पड़ा। रिक्शे से उतर कर मैंने उन्हें अपने पीछे दुकान में आने का संकेत किया। वे खीसें निपोरते हुए भीतर आए। 'आइए, श्रीमान,' दुकानदार ने मुझे बिठाया। महेश दरवाजे के पास ही खडे रहे। मैंने


उन्हें अंदर आकर सोफे पर अपनी बगल में बैठने का संकेत किया। उन्होंने अत्यंत अनिच्छापूर्वक वैसा ही किया।


तभी दुकान का एक युवा कर्मी मेरे पीने के लिए पानी ले आया।


'इसे महेश को पिलाएं,' मैंने कहा। 'वही आपका आज का ग्राहक है।' 'चप्पल की बजाए सैंडिल लेंगे, महेश? वे ठीक रहेंगे।' मैंने महेश से कहा। 'आप जैसा ठीक समझें।'


दुकानदार दुकान के पिछले हिस्से में गए और कुछ मिनटों बाद हाथों में सैंडिलों का एक जोड़ा लिए वापिस आए। हलके भूरे रंग की उन सैंडिलों में गहरे भूरे फीते और स्टील के चमकते बिल्ले लगे थे। सैंडिल काफी आरामदायक लगीं। उन्होंने वे सैंडिल महेश के हाथों में थमानी चाही।


'कृपया इनके पैरों में पहनाएं, जैसा आप किसी भी दूसरे ग्राहक के लिए करते हैं,' मैंने कहा।


महेश ने घबराहट से मेरी ओर देखा। मैंने उनकी आंखों में देखते हुए संकेत किया। तुरंत ही उनके चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई और उन्होंने अपने पैर आगे बढ़ा दिए ताकि विक्रेता उनमें सैंडिल पहना सके। मैंने महेश के सुंदर सांवले चेहरे, उनके पीले किंतु बेडौल और दागदार दांतों तथा संतुष्टि से भरी बड़ी आंखों की ओर देखा और मुझे अपने भीतर बड़े स्नेह की अनुभूति हुई। उनकी मुस्कान ने मानो मेरा दिन सार्थक कर दिया था।


महेश ने अब रिक्शे के पैडल को एक नए उत्साह से चलाना शुरू किया। जैसे नई चप्पलों में उनके मटमैले, असुंदर से पैर जैसे जीवंत हो उठे हों। मेरी दृष्टि उनके पैडल चलाते पैरों पर जा टिकी मानो बाकी सभी चीजें नेपथ्य में जा छिपी - दुकानें, शोरगुल, गरमी। मैं उनके पैरों के सिवाय और कुछ देख ही नहीं पा रहा था, मानो वे एक दिव्य नृत्य कर रहे हों। अभी एक पैडल ऊपर गया और अब एक पैडल नीचे आया; सभी गतियां जैसे पूरी लय सहित अनायास और सहज होती जा रही थीं।


महेश ने मुझे मणिकर्णिका घाट के निकटतम स्थल तक पहुंचा दिया। रिक्शे से उतरते हुए मैंने उन्हें चेताया, 'यदि आप फिर कभी मंदिर जाओ, तो अपने जूते बाहर मत छोड़ना।' 'नहीं छोडूंगा,' उन्होंने कहा।


मैंने पचास रुपए का एक नोट उनकी ओर बढ़ाया।


'बाबूजी, मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं?' ,


'मेहरबानी करके इसे रख लें। यदि आप इसे लेंगे, तो मुझे बहुत खुशी मिलेगी।' वे रिक्शे के आगे से घूम कर मेरे निकट आए और मेरे पैर छूने नीचे झुके। मैंने उनकी कलाई पकड़ उन्हें ऊपर उठाया। 'केवल तीन ही ऐसी जगहें हैं, जहां आपको अपना सिर झुकाना चाहिए।' मैंने कहा। 'ईश्वर के समक्ष, अपने बड़े-बुजुर्गों के समक्ष व अपने गुरु के

समक्ष।'


, मैंने जबरन उनके हाथों में वह नोट रखा और यह सोचते हुए चल दिया कि महेश रिक्शा चलाने के लिए नहीं बने थे। वे एक क्लर्क हो सकते थे, एक अधिकारी, एक एक्जीक्यूटिव हो सकते थे। होना तो यह चाहिए कि किसी को भी एक ऐसा जीवन न जीना पड़े, जो शरीर और आत्मा को तोड़ देने वाला हो। यह व्यक्ति एक लोकतांत्रिक देश में रह रहा था, पर क्या उसने इसे एक मुक्त जीव बनने दिया? राजसत्ता ने उसे कुछ नहीं दिया और उसके देशवासियों ने उसे सम्मान नहीं दिया। उसे यह आजादी नहीं मिल सकी कि वह अपने सिर के ऊपर एक छत पा सके अथवा अपनी दिनचर्या की कठिनता और कठोर नीरसता से छुटकारा पा सके। मैं नहीं समझता कि महेश ने अपने जीवन में कभी कोई अवकाश पाया होगा अथवा किसी विलासिता का आनंद लिया होगा। उन्हें कोई एक चीज जो बहुतायत से मिल सकी, वह उनकी जरूरतें ही थीं, जिनकी उनके जीवन में कभी कोई कमी नहीं हुई होगी। इसके बारे में सोचने पर मुझे यह लगा कि उनमें और मुझमें कोई बहुत अधिक अंतर नहीं था। हम दोनों अपनी आवश्यकताओं की बेड़ियों में जकड़े पड़े थे। जहां उनकी आवश्यकताएं अधिक साकार और अनिवार्य थीं, वहीं मेरी अमूर्त और मेरे ही द्वारा स्वयं पर थोपी गई थीं।


फिर मैंने किसी तरह मणिकर्णिका घाट तक पहुंचने का मार्ग पा ही लिया। मुझे संदेह है कि भारत में और कहीं भी इतनी तंग सड़कें होंगी, जितनी वाराणसी में हैं। कम से कम मैंने तो नहीं देखी। यदि आपकी नाक थोड़ी बड़ी हो और आप अपना सिर घुमाएं, तो किसी न किसी चीज़ से जरूर टकरा जाएंगे। मुझे नहीं मालूम कि मैं किस तरह मणिकर्णिका घाट तक पहुंच सका, पर अंततः मैं वहां पहुंचने में सफल रहा।


घाट पर एक चिता जल रही थी, जबकि दूसरी अधिकांशतः राख में बदल हो चुकी थी, जिसके सुलगते अंगारे कभी-कभी दहक उठते। चारों ओर टूटे हुए मटकों के टुकड़े बिखरे पड़े थे। अंत्येष्टि के समय जल से भरा मिट्टी का एक पात्र तोड़ना एक हिंदू परंपरा है, जो यह संकेत देती है कि मृतक की आत्मा ने मानवीय जगत से अपने सारे संबंध तोड़ दिए हैं। पात्र मानव शरीर का प्रतीक है और उसका टूटना इस बात का संकेत कि उससे बंधी आत्मा अब मुक्त हो चुकी।


वहां कोई संत, कोई रहस्यवादी साधक और कोई पहुंचे हुए तांत्रिक या योगी दिखाई नहीं दिए जो मुझे आत्मसाक्षात्कार की अपनी यात्रा में भागीदार बनाने का संकेत देते। उनकी बजाए, चिताओं के चारों ओर लकड़ियों के विक्रेता, पानवाले और चूड़ीवाले बैठे थे। असंख्य लोग, गाएं, कुत्ते और बिल्लियां इधर-उधर घूम रही थे।


घाट से निराशा पाकर मैंने एक बार फिर तैलंग स्वामी के मठ का पता लगाना प्रारंभ किया। बहुत सारे लोगों से पूछने पर उनमें से एक ने स्वीकृति में सिर हिलाया। उसने एक निश्चित दिशा में संकेत किया। मैं संकरे रास्तों से होकर आगे बढ़ा, उनमें दोनों ओर ऐसी इमारतें दिखी, जो कभी भी ढह सकती थीं। दुकानों में लगभग हर प्रकार का सामान बिक रहा था। पागल कर देने वाले ट्रैफिक से बचते-निकलते मैंने स्वयं को घुमावदार गलियों में



चलते हुए पाया, जिनमें एक दूसरे से सटे मकान थे और यहां-वहां खड़ी मोटरसाइकिलों के बीच बच्चे खेल रहे थे। मैं जानवरों के मल-मूत्र पर अपने पांव पड़ने से बचाने की पूरी कोशिश करता हुआ आगे चलता रहा।


पैंतालीस मिनट चलने के बाद मैं थककर और निराश होकर रुक गया। मुझे वह मठ तो नहीं मिला और कोई ऐसा व्यक्ति भी न मिला, जिसने कभी उसे देखा हो। मैं सड़क किनारे एक ऊंची जगह पर बैठ अपने ललाट से पसीना पोंछते हुए सोचने लगा कि आगे कैसा बढा जाए। कुछ मिनटों बाद, मैंने अपना सिर ऊपर उठाया, तो पाया कि मेरी दाहिनी ओर हिंदी में एक बोर्ड पर लिखा है, 'तैलंग स्वामी मठ।' वास्तव में, यह एक मंदिर था।


मैं अंदर चला गया। पुजारी के आसन पर एक व्यक्ति आसीन थे, उनका प्रत्येक अंग जैसे गोल थाः सिर, चेहरा, छाती, पेट, हाथ और पैर। तभी मुझे एक नाई दिखाई दिए, उन्होंने अपने थैले से औजार निकाले और पुजारी की दाढ़ी बनाने लगे। बाहर की झुलसा देने वाली गरमी के बाद मंदिर के अंदर की शीतलता का सुख उठाते हुए मैं उन्हें देखता रहा। उसके बाद नाई ने अपनी चीजें समेटीं और वहां से चल दिए। पैसे का कोई लेन-देन न हुआ। संभवतः उनके बीच मासिक आधार पर कोई समझौता था।


मैंने पुजारी से तैलंग स्वामी, उनकी शिष्य परंपरा और मठ के विषय में पूछा। उन्होंने बताया कि ऐसी कोई चीज नहीं है और भुगतान करने पर भी मंदिर में किसी के ठहरने की कोई व्यवस्था नहीं है।


मुझे ऐसा लगा, मानो मेरे साथ छल हुआ हो, हालांकि मैं निश्चित न था कि मुझसे यह छल किसने किया। ,


'तैलंग स्वामी को वहां समाधिस्थ किया गया था,' उन्होंने मंदिर परिसर के एक कोने की ओर संकेत किया। मैं वहां गया और प्रार्थना की, 'कृपया मेरा मार्गदर्शन करो, हे स्वामी, ताकि मैं अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकू।' I


बाहर निकलने लगा तो मुझे रोककर पुजारी ने पूछा कि मुझे किसकी तलाश है? मैंने उन्हें बताया कि मैं एक गुरु की खोज में हूं और संन्यास दीक्षा लेकर एक संन्यासी का जीवन जीना चाहता हूं।


उन्होंने कहा कि मुझे संसार को छोड़ने और एक गुरु की तलाश करने की कोई


आवश्यकता नहीं है और मुझे विवाह कर एक सामान्य जीवन जीना चाहिए। सामान्य जीवन? सामान्य जीवन जैसी कोई चीज़ कहां होती है। जो किसी एक की दृष्टि में सामान्य होता है, वही किसी दूसरे के लिए अत्यंत असामान्य हो जाता है। एक योगी यह समझता है कि संसार असामान्य है और लोग खाते-पीते-मैथुन करते हुए, जानवरों जैसा जीवन व्यतीत करते हैं। संसार यह सोचता है कि योगी मूर्ख है, जो कुछ भी न करता हुआ अपना जीवन यूँ ही बिता देता है और जीवन के असंख्य आनंदों में किसी एक का भी आनंद नहीं ले पाता।


स्वभावतः, पुजारी को मैंने इनमें से कोई भी बात नहीं कही। एक ऐसे व्यक्ति से तर्कवितर्क करने का मेरा कोई प्रयोजन न था, जो न मेरी व्यग्रता समझ सकते थे, न ही मेरा , I



अभिप्राय!

मैं एक बारफिर घाट की ओर बढ़ा। लगभग तीन बज चुके थे और अब अधिक गरमी का अनुभव हो रहा था। मैंने पूरा दिन कुछ भी नहीं खाया था। सुबह मुझे कोई ऐसा स्थान नहीं दिखा, जहां भोजन बहुत तला-भुना न हो। दोपहर के बाद मैं अपने आत्मसाक्षात्कार के मैं उद्देश्य को लेकर व्यस्त रहा, पानी की भी बोतल घंटों से खाली थी और भूख से अंतड़ियां कुलबुला रही थीं।

दिशा का ज्ञान न होने के कारण मैं यह भी नहीं समझ पा रहा था कि मैं घाटों की ओर बढ़ रहा हूं अथवा उनसे विपरीत दिशा की ओर जा रहा हूं। जब मैंने यह पाया कि सड़कों पर लोगों की संख्या काफी कम हो गई है, तो मैं समझ गया कि मेरी दिशा गलत ही थी। संयोग से मुझे वहां कुछ लॉज दिखे और मैंने उनमें यह पूछ लिया कि क्या वहां कोई जगह खाली है। मैं अब किसी शांत तथा ठंडी जगह पर केवल लेट जाना चाहता था। यह एक विचित्र बात थी कि हर जगह उन्होंने मुझसे यह पूछा कि मैं कहां से आया हूं, कितने लोगों को कितने दिनों के लिए कमरे की आवश्यकता है और उसके बाद मुझे यह उत्तर मिलता कि कोई जगह खाली नहीं है। मेरे अंदर एक कौतूहल जाग उठा। यदि उनके पास कमरा खाली न था, तो फिर वे मुझसे ढेर सारे प्रश्न क्यों करते थे?


मैं आगे बढ़ता गया और अंततः नदी किनारे जा पहुंचा। हिन्दू शास्त्रों में 'गंगा मैया' के पावन महत्व की इतनी अधिक चर्चा है कि उसी की 'संतानों ने उसे कल्पनातीत ढंग से प्रदूषित कर दिया है। मेरे निकट से प्रवाहित हो रही गंगा देखकर मेरा मन क्षोभ तथा अविश्वास से भर उठा। मैंने गंगा को हरिद्वार तक देखा था, जहां वह स्वच्छ थी। परंतु सभी नगरों में सर्वाधिक पवित्र मेरी कल्पना की काशी में इसकी यह क्या दशा है? मैंने निर्णय लिया कि मैं यहां की गंगा में स्नान नहीं करूंगा। यद्यपि आंतरिक रूप से मैंने गंगा मैया के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित की। चाहे कैसे भी रूप में क्यों न हो, मां तो मां ही होती है।


'मालिश?' मैंने पूछने वाले व्यक्ति को देखने के लिए अपनी नजरें उठाईं। 'नहीं। मुझे एक गाइड की आवश्यकता है।' 'ठीक है, भैया जी। मैं आपका गाइड बन सकता हूँ।' 'आप इस इलाके से भलीभांति परिचित तो हो?' 'हां, भैया जी।'

'कितना मेहनताना लोगे? मुझे आज के बाकी बचे दिन और संभवतः कल भी आपकी आवश्यकता होगी।'

'आप जो भी चाहें, मुझे दे सकते हैं।'

'250 रुपए प्रतिदिन?' 'मंजूर है, भैया जी।' 'तो फिर हम चलें। 'मैं आपका बैग ले लूंगा,' उन्होंने भलमनसाहत से कहा। 'मुझे यह अनुभव होने में कुछ मिनट लग गए कि अब मैं उस बोझ से मुक्त हो गया हूं। ,



सामान के साथ यही होता है - हम इसे ढोते फिरने के अभ्यस्त हो जाते हैं। हम यह जानते हैं कि यह भारी है, परंतु फिर भी वह बोझ सहज ही हमारे जीवन का एक अंग बन जाता है। उसे अपनी पीठ से उतार जब हम हलकापन महसूस करते हैं, सिर्फ तभी बोझ की चेतना आती है।


मनीष भी मुझे दो गेस्ट हाउस में ले गए, जहां मुझसे फिर वही सवाल किए गए। अंत में मेरे गाइड ने यह रहस्य सुलझाते हुए बताया कि जब इन लॉजों के कर्मचारी अपने काम में व्यस्त नहीं रहते अथवा टीवी पर क्रिकेट मैच नहीं देखते, तो वे अपना समय काटने के लिए अपने यहां कमरे की पूछताछ करने आने वालों के साथ इसी तरह बातें किया करते हैं। उनके पास कोई कमरा खाली नहीं होता, पर उन्हें एक अजनबी के साथ बातचीत करना बहुत भाता है।


मैंने ठहरने के लिए एक जगह की तलाश में बहुत दूर न जाकर, मनीष से कहा कि वे मुझे एक बड़े होटल में ले चलें, पर उन्होंने कहा कि इस इलाके में कोई वैसा होटल नहीं है। मैं यह समझ गया कि उन्हें इस इलाके की अच्छी जानकारी न थी और उन्होंने मुझसे झूठ कहा था। बहरहाल, अब मैं भूख से बेहाल हो रहा था। हमें एक शाकाहारी जैन ढाबा मिल गया, से जहां बगैर प्याज-लहसुन का पका भोजन उपलब्ध था। मैं प्याज-लहसुन से परहेज करता था, सो मेरे लिए यह स्थान बहुत अच्छा था, परंतु वहां का भोजन अच्छा न था। वह मुझे स्वादहीन लगा। मैं बुरी तरह थक चुका था और मेरा सिर दर्द कर रहा था। जो भी मेरे सामने कुछ भी कहे बगैर मैंने कंठ से नीचे उतार लिया किंतु मेरे गाइड ने मजा लेकर खाया। ढाबे से निकलने के बाद मैंने एक छोटी सी दुकान से ठंडे पानी की दो बोतलें खरीदीं। पहली बोतल खोलकर मैंने उसके पानी से अपना चेहरा धोया और बाकी बचा पानी अपने सिर पर उड़ेल लिया। फिर दूसरी बोतल को खोल उसका पानी एक सांस में पी गया। आया, उसे 

जब हमने एक बार फिर रहने की जगह तलाशनी शुरू की, तब लगभग छह बज चुके थे। अंततः पूजा गेस्ट हाउस पहुंचकर हमारा भाग्योदय हुआ, जहां मुझे एक कमरा मिल गया। मैंने मनीष को छुट्टी दी और उनसे फिर दूसरे दिन सुबह आने को कहा। ,

हालांकि मुझे अब एक कमरा मिल चुका था, मगर थकावट तथा शरीर में पानी की कमी हो जाने की वजह से मैं सो नहीं सका। मेरे शरीर की हालत मेरे पेशाब के रंग से स्पष्ट थी। मुझे यह नहीं मालूम था कि मैं इतना अधिक दुर्बल हो चुका हूं। बहुत दिन नहीं बीते, जब मैं रोजाना बैडमिंटन खेलता था, गोल्फ कोर्स में लगातार घंटों बिताता, बॉडी बिल्डिंग करता, नियमित रूप बारह से मील की दौड़ लगाया करता और यह सब मुझे बहुत सहज महसूस होता था। किंतु आज, 'वास्तविक' संसार में बिताया केवल एक दिन मुझे मेरी क्षमता से कहीं भारी पड़ गया। मेरा यह विश्वास कि मैं पूरी तरह से स्वस्थ और मजबूत हूं, केवल एक अहंकारभरी धारणा सिद्ध हुआ। 

मैंने महसूस किया कि मेरा शरीर संन्यास की कठिनाइयों के लिए कतई तैयार न था। यदि मैं केवल एक दिन की गरमी न सह सका, तो फिर ध्यान करने और एक संन्यासी के जीवन की कठोरताएं झेल पाने की आशा के लिए स्थान कहां था? घोर तपश्चर्या हेतु मैं अपने

 शरीर को किस भांति तैयार करूं, इसका मुझे कोई अनुभव न था। परंतु मुझे इतना तो पता था कि जीवन मुझे स्वतः सब सिखा देगा। मुझे केवल मुक्त मनोभाव सहित आग्रही बने रहना था।


मैं वहाँ लेटे-लेटे अपनी अब तक की सांसरिक यात्रा के विषय में विचार करता रहा।

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